ऑनलाइन शिक्षा: महिलाओं के नज़रिये से
… समय ही बताएगा कि कोरोना के प्रकोप के बाद इस ऑनलाइन शिक्षा का कितना हिस्सा हमारे साथ रह जाने वाला है। लेकिन ये ज़रूरी है कि हम ये समझें कि इंटरनेट के माध्यम से ज़्यादा पहुँच का दावा खोखला है क्योंकि यह प्रणाली कई लोगों को शिक्षा व्यवस्था के बाहर कर देगी।
नीरजा
कोरोना महामारी ने दुनिया में एक अभूतपूर्व स्थिति पैदा कर दी है। भारत में फरवरी-मार्च में इस बीमारी को लेकर चर्चाएँ शुरू हुईं और मार्च 21 को सरकार ने देश-व्यापी कर्फ़्यू (लॉकडाउन) लगाने का आदेश दिया। लॉकडाउन के दौरान कई क्षेत्रों से पुलिस प्रताड़ना की खबरें आयीं। सभी फैक्टरियाँ और छोटे-बड़े व्यापार बंद हो गए। बाज़ार आने-जाने और दुकानों के खुलने पर कई तरह की पाबंदियाँ लगाई गयीं। लाखों लोगों के काम छूट गए और खाने-पीने का सामान तक मिलना मुश्किल हो गया। इनमें से ज़्यादातर ऐसे थे जो दिहाड़ी का काम करते थे। ऐसे में वो लोग जो दूसरे राज्यों में काम करने गए थे अपने घरों को वापस लौटने के लिए मजबूर हो गए। भुखमरी, बेरोज़गारी और बीमारी के कारण घर-बार की चिंता; इन सब के ऊपर अनिश्चितता और सरकार की ओर से इन सब मसलों को सुलझाने के प्रयासों के अभाव ने मिलकर ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि कई लोग सैकड़ों मील पैदल ही घर जाने पर मजबूर हो गए।
सभी शिक्षण संस्थाएँ – विश्वविद्यालय, कॉलेज और स्कूल सत्र के बीच में ही बंद हो गए। बहुत सारे विश्वविद्यालयों ने अपने हॉस्टलों को बीमारी फैलने के डर से खाली करवा लिया और छात्रों को ज़बरदस्ती घर भेज दिया गया। UGC आदि ने विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों को ऑनलाइन पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। इस तरह ऑनलाइन पढ़ाई को बढ़ावा देना सिर्फ भारत में ही नही बल्कि पूरी दुनिया में हुआ, जिसके चलते कई ऑनलाइन सॉफ्टवेयर या ऍप जैसे ज़ूम, गूगल-मीट, माइक्रोसॉफ्ट टीम्स आदि का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा।
सारी पढ़ाई का यूँ ऑनलाइन होना एक बड़ा परिवर्तन था जिसके कारण शिक्षकों और छात्रों – दोनों के सामने नयी दिक्कतें खड़ी हो गयीं। कई शिक्षकों के पास एक अच्छी इंटरनेट की सुविधा न होने के बावजूद, उनसे यह अपेक्षा थी कि वे ऑनलाइन पढ़ाने और उसकी तरकीबों में जल्द ही माहिर हो जाएँ। बड़े विश्वविद्यालय और संस्थान, जो अपने शिक्षकों को अच्छी इंटरनेट व्यवस्थाएँ मुहैय्या करा सकते थे, वहाँ भी दिक्कत यही थी। चूँकि सभी छात्र अब तक घर जा चुके थे, उनमें से कईयों के पास घर पर अच्छी इंटरनेट व्यवस्था या कम्प्यूटर नहीं थे। इस “डिजिटल-डिवाइड” के चलते बहुत से छात्र न तो ऑनलाइन क्लास कर पाए और न ही पढ़ाई की सामग्री (नोट्स इत्यादि) डाउनलोड कर पाए।
आज स्थिति यह है कि कहीं से भी कोई भरोसेमंद खबर नहीं है कि कोरोना महामारी की चपेट से हम कब उबर पाएँगे। अगर ज़्यादा समय तक यही हाल रहा तो हो सकता है कि ऑनलाइन पढ़ाई को ही एकमात्र उपाय मान लिया जाए। अमेज़न आदि कंपनियों के आने के बाद से बाज़ार का एक हिस्सा ऑनलाइन चला ही गया है। इसलिए पढ़ाई का भी ऑनलाइन हो जाना मध्यम वर्ग के लिए कोई बहुत हैरत की बात नहीं होगी। अच्छा इंटरनेट कनेक्शन ना होने की परेशानी से उन्हें नहीं जूझना है। इसकी दिक्कत ज़्यादातर उन लोगों को है जो या तो इंटरनेट सेवाओं के लिए इतने पैसे खर्च नहीं कर सकते या फिर किन्ही और कारणों से इन सेवाओं को पाने में असफल हैं। यह लेख इस चर्चा को आगे बढ़ाने का प्रयास है कि यह परिवर्तन महिलाओं को कैसे प्रभावित करेगा।निश्चित ही लॉकडाउन का प्रभाव महिलाओं पर ज़्यादा नकारात्मक रहा है1। इस दौरान घरेलू हिंसा की घटनाओं के बढ़ जाने की खबर आयी। कई घरों में महिलाएँ पहले से ही असुरक्षित महसूस करती हैं, लॉकडाउन के चलते उनकी स्थिति पहले से भी ख़राब हो गयी।
स्कूल शिक्षकों में महिलाएँ काफी मात्रा में हैं। लॉकडाउन के समय काम की जगह और घर एक हो जाने से महिलाओं को काफी मुश्किल हुई। वैसे देखा जाए तो बड़े शहरों की कई बस्तियों में काम की ऐसी व्यवस्था कई सालों से रही है। जो महिलाएँ कढ़ाई, मसाले पैक करना, बीड़ी बनाना, कागज़ के लिफ़ाफ़े बनाने आदि का काम करती हैं, वे सब घर रहकर ही यह काम कर रही हैं। इससे न सिर्फ रोज़गार देने वाले की ज़िम्मेदारी कम हो जाती है, बल्कि साथ मिलकर काम करने की कोई जगह न होने के कारण किसी भी प्रकार के भेदभाव या अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने या साथ आने की संभावनाएँ भी ख़तम हो जाती हैं। ज़्यादातर पढ़ाई व पढ़ाने के ढाँचे ऑनलाइन हो जाने पर शिक्षकों पर भी कुछ ऐसा ही असर पड़ेगा। शिक्षक यूनियन ख़तम होने लगेंगे। महिलाओं की सार्वजनिक क्षेत्र से मौजूदगी और कम होती जायेगी। घर और काम करने की जगह के बीच की दूरी कम होने से महिलाएँ ज़्यादा प्रभावित होंगी। ज़्यादातर घरों में बच्चों और बूढ़ों की देखभाल की पूरी ज़िम्मेदारी महिलाओं की होती है। इसके साथ ही ज़्यादातर घर के काम भी महिलाओं को ही करने पड़ते हैं। घर से काम करने की स्थिति में महिलाएँ घर के काम करने के लिए पूरे दिन उपलब्ध रहेंगी, ऐसे में ऑफिस का काम करने के लिए समय निकालना मुश्किल हो जाएगा। ऐसी रिपोर्ट आना शुरू हो गयी है कि लॉकडाउन के नतीजतन घर पर काम करने से महिला शोधकर्ताओं के काम पर नकारात्मक असर पड़ा है2। हालाँकि लॉकडाउन के समय मध्यम वर्ग की कामकाजी महिलाओं की दिक्कत ज़्यादा बड़ी इसलिए भी थी कि घर के काम (झाड़ू, पोछा आदि) करने वाली महिलाएँ काम पर नहीं आ पा रही थीं। इन मध्यमवर्गीय महिलाओं का अपने काम के क्षेत्र में आगे बढ़ने में, घर पर सफाई, बच्चों की देखभाल वगैरह करने आने वाली महिलाओं का कितना बड़ा योगदान है, इसका ज़िक्र कम ही होता है। और उन घरेलू काम करने वाली महिलाओं को लॉकडाऊन के कारण न सिर्फ सामान मिलने में दिक्कत थी, बल्कि काम पर न जा सकने के कारण न जाने कितनों की कुछ महीनों की तनख़्वाह भी कट गयी।
पढ़ाई का ऑनलाइन होना लैंगिक उत्पीड़न के नए पहलू भी सामने लाता है। ज़ूम, जिसका इस्तेमाल बहुत ज़ोर-शोर से हुआ, पर ऐसे कई मामले सामने आए। इसे ज़ूम-बॉम्बिंग कहा गया3। जहाँ वक्ता या शिक्षक औरतें थीं, वहाँ कई मामलों में बेहूदा और अश्लील भाषा का इस्तेमाल हुआ। वैसे तो यह कोई नयी बात नही है। सोशल मिडिया पर महिलाओं के साथ इस तरह का व्यवहार आम बात हो गयी है। लेकिन अब पढ़ाते समय भी महिलाओं को इस तरह के बर्ताव का सामना करना पड़ेगा4। ऐसी स्थिति में काम करने की जगह क्या है? क्या sexual harassment at workplace (कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न) के नियम यहाँ लागू होते हैं? – इन सवालों का स्पष्ट जवाब विश्वविद्यालयों को देना होगा। ज़ूम जैसे कई ऑनलाइन ऍप्स ने इन बातों को ध्यान में रखते हुए कुछ परिवर्तन किये और ऍप को और सुरक्षित बनाया। लेकिन विश्वविद्यालयों ने इस पर न तो कोई विशेष चर्चा की और न ही कोई नियम बनाये। आज सभी विश्ववियालयों में एक जेंडर सेल (gender cell) या कार्यस्थल पर महिलाओं के लैंगिक/यौन उत्पीड़न की रोकथाम और सुधार के लिए कमिटियां (CASH – committee against sexual harassment) हैं। शिक्षा संस्थानों में हो रहे लैंगिक उत्पीड़न पर रोक लगाने की यह प्रक्रिया एक लम्बी लड़ाई के बाद शुरू हो पायी है, लेकिन अब भी ऑनलाइन होने वाले दुर्व्यवहार को लेकर नियम या तो अस्पष्ट हैं या इन मुद्दों पर बात करने में एक हिचकिचाहट है।
इतनी परेशानियाँ होने के बावजूद किसी तरह से इस सत्र की पढ़ाई ख़त्म हुई। अगली समस्या यह थी कि इम्तिहान कैसे लिए जाएँ। परीक्षा – आधुनिक जगत की शिक्षा व्यवस्था की सबसे ज़रूरी कड़ी है। परीक्षा ही एकमात्र तरीका है मेरिट पैदा करने का और मेरिट के हिसाब से ही तय होगा की आपका शिक्षा के बाजार में (और आगे चल कर नौकरी के बाज़ार में) क्या मूल्य है। ऐसा देखा गया है की छात्राएँ प्रतियोगिता वाले माहौल में कम और सहभागिता को बढ़ावा देने वाले माहौल में ज़्यादा सीखती हैं। यह भी देखा गया है जाति व लिंग के आधार से कमज़ोर वर्ग ऐसी व्यवस्था में मात खाता है जहाँ शिक्षा-प्रणाली परीक्षा पर ज़्यादा निर्भर है। चूँकि हम पहले ही परीक्षा पर ज़्यादा निर्भर रहे हैं, ऑनलाइन पढ़ाई में, जहाँ कई बार छात्र इंटरनेट ना होने के कारण क्लास में उपस्थित ना हो सकें, परीक्षा एक ऐसी बाधा बन जाएगी जिसे सिर्फ वही लोग पार कर सकेंगे जिनके पास साधन हों। अब तक ये JEE जैसे इम्तेहानों में होता आया है कि ज़्यादा साधन वाले लोग अच्छे कोचिंग कर, घर पर उचित माहौल बना कर इन कठिन परीक्षाओं में सफल हो जाते हैं। ऑनलाइन पढ़ाई में ऐसा ही कुछ विश्वविद्यालय में भी होने की संभावना है।
एक निष्पक्ष परीक्षा व्यवस्था और सन्दर्भरहित कक्षा – ये आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के नैतिक आधार हैं। सन्दर्भरहित कक्षा से हम यह समझते हैं की विश्वविद्यालय या कॉलेज में आने के बाद सभी छात्र एक समान होंगे और उनके साथ लिंग, जाति या वर्ग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। वे एक ही तरह से रहेंगे और एक ही तरह की शिक्षा प्राप्त करेंगे। लेकिन इसका यह मतलब निकाल लिया गया है कि हम उन पर होने वाले सामाजिक और आर्थिक दबावों को एकदम नज़रअंदाज़ कर दें। इसीलिए हम ये नहीं सोचते कि जो छात्र नियमित आय वाले घरों से नहीं आते, वे हर महीने नियमित रूप से फीस कैसे भरेंगे और इसके चलते उन पर जो दबाव आएँगे उससे उनकी पढ़ाई पर क्या असर पड़ेगा। मिसाल के तौर पर हमें यह फ़र्क नहीं पड़ता कि छोटे किसान परिवार से आने वाले छात्र शायद फसल के समय ही फ़ीस भर सकें। और इसीलिए डिप्रेशन या जाति और लिंग आधारित भेदभाव जैसी समस्याओं को हम बड़े ही सतही तरीके से सुलझाने की कोशिशें करते हैं। ऑनलाइन पढ़ाई इस सतही संदर्भहीनता का एक हद तक पर्दाफ़ाश कर रही है। अब शिक्षक मजबूर है यह जानने के लिए की कितने छात्रों के पास लैपटॉप नहीं है, कितनों के घरों में इंटरनेट नहीं है और कितनों के पास अपना स्मार्टफोन नही है। हालाँकि इस हकीक़त से सामना होने के बावजूद और यह पता होने के बावजूद कि कोरोना महामारी के कारण नौकरियाँ भी गयीं हैं और छोटे-मोटे धंधे भी चौपट हो गए हैं या होने की कगार पर हैं, विश्वविद्यालयों में इन छात्रों की आर्थिक या और किसी प्रकार की सहायता के लिए कोई कदम नहीं उठाया जा रहा। संदर्भहीनता का मतलब यह कत्तई नहीं है कि हम छात्रों की दिक्कतों ले प्रति संवेदनहीन हो जाएँ। एक तो पढ़ाई ना कर पाने का और आगे चल कर इम्तिहान का तनाव और ऊपर से बीमारी का डर व कई घरों में काम ठप्प हो जाने या छूट जाने का भय! ऐसे में मध्यमवर्गीय छात्रों को, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त घरों से आते हैं और इसलिए इस महामारी की चोट से उभरने में समर्थ हैं, आदर्श मान कर शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाना सरासर गलत होगा।
शिक्षा के बाज़ारीकरण, उसके पछाड़ कर रख देने वाले स्वरूप और नीरस अध्यापन के बावजूद, स्कूल और कॉलेज छात्रों के लिए महत्वपूर्ण जगहें हैं। यहाँ वे पहली बार अपने परिवार और मोहल्लों से बाहर लोगों से मिलते और मित्रता करते हैं। यह अनुभव लड़कियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि कई बार यही वो जगहें हैं जहाँ वो पूरी आज़ादी से बातचीत कर सकती हैं। यहाँ उन पर कोई परिवारजन लगातार नज़र नहीं रख रहे होते हैं। कॉलेज जाना एक ऐसी आज़ादी का अनुभव है जिसका मौका लड़कियों को अपने घरों में या मोहल्लों में कम ही मिल पाता है। घर पर रहकर पढ़ने में हमेशा घर के काम और पढ़ाई में किसी एक को प्राथमिकता देने का सवाल लड़कियों के सामने बना रहेगा। कई परिवारों में स्मार्टफोन का लड़कियों के पास होना एक अवांछनीय आज़ादी के रूप में देखा जाता है। ऐसे में क्या वे ऑनलाइन पढ़ाई कर भी सकेंगी इस पर एक बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है। कई परिवार जहाँ एक ही स्मार्टफोन है, वहाँ लड़की की पढ़ाई के लिए उसे कुछ समय स्मार्टफोन देने को प्राथमिकता देने वाली स्थिति शायद ही बन सके। इस तरह ऑनलाइन पढ़ाई में लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों का पीछे रह जाना तय है।
हालाँकि ऑनलाइन पढ़ाई के कुछ चैनलों ने हाल में (कोरोना महामारी के आने से पहले भी) कुछ नाम कमाया है, इसे अब तक परंपरागत शिक्षा प्रणाली के विकल्प के रूप में नहीं देखा गया है। यह तो समय ही बताएगा कि कोरोना के प्रकोप के बाद इस ऑनलाइन शिक्षा का कितना हिस्सा हमारे साथ रह जाने वाला है। लेकिन ये ज़रूरी है कि हम ये समझें कि इंटरनेट के माध्यम से ज़्यादा पहुँच का दावा खोखला है क्योंकि यह प्रणाली कई लोगों को शिक्षा व्यवस्था के बाहर कर देगी।
आभार
जयश्री, श्रेया, तुलसी, अनुपमा और किशोर को चर्चा के लिए और संदीपा, देबारति, मंजरी, आलोक, वैभव और कार्तिक को समीक्षा के लिए धन्यवाद।
1 https://www.nature.com/articles/d41586-020-02006-z
2 https://www.nature.com/articles/d41586-020-01294-9
3 https://en.wikipedia.org/wiki/Zoombombing
4 https://feminisminindia.com/2020/06/16/blue-saree-teacher-case-kerala-sexualisation-policing-women/